मिलेगा नहीं कुछ भी यारों जमाने में
फिर भी चल रहे हैं उसके ही इशारों पे
कल तक जो अपना लहजा भूल गए थे
आज वो कुछ बातें बना रहे थे जमाने पे
जरूर कुछ कायनात में बदल गया होगा
यूं ही वो नजर नहीं आते सबके आईने में
फलसफा को जरूर किसीने बदल दिया होगा
मेरे हाथों की लकीरों से साफ झलकता है
कल जो लकीरें मोहब्बत का इशारा करती थी
आज उन्हें फिर नफरत से लड़ते देखा है
किसी से ना पूछो मुझे क्या हुआ है
मेरे दरवाजे पर भी दस्तक ना दो
मैं बस अकेला होने के लिए
हर शाम मयखाना चले जाता हूं
मेरे दुख का कारण मुझसे ना पूछो
हुकूमत का शख्स रोज मुझसे पूछता है
क्या तुम लोगों के सुख से दुखी हो
ना जाने मेरा चुप रहना उसे क्यों पसंद आता है
कुछ भ्रम इतने गहरे हो गए
सब टूट गया लेकिन वो खड़े रहे
एक दिन मैंने भी उन्हें तोड़ने का सोचा
और हुकूमत ने उन्हें सलामत रखा
कुछ भी नहीं पाया रोज रात को जागकर
सुबह होते ही फिर से नींद आती है
आज हमने फिर सुबह जागने का सोचा
तो हुकूमत ने आज ही मूर्छा का फरमान जारी किया
- शशि प्रेम
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