कविता मंजिल के राही

     एक दिन ओ मंजिल के राही

     चल दिया तू लक्ष्य की ओर

     अब क्या देखे वापस मुड़कर

     तेरे पीछे कोई ओर ना छोर 

     सोचे तू बचपन के झरोखें 

      पिछले दिनों की स्मृति रोके

     मंजिल की नित छवि सोचकर

     चल पड़ता है तू गिर पड़ कर

     मन में नूतन उल्लास बांधकर 

     एक दिन ओ मंजिल के राही 

      चल दिया तू लक्ष्य की ओर 

        कभी सफर सुहाना होता 

        कभी होती है कठिनाई 

       जीवन भर का दुख सताता

       तुझे रोकने एक अंकुर आता

       भटकते हुए वह उपवन को जाता

       बंजर भूमि को जोतकर

       आशा के फिर नए दिए जलाकर

       एक दिन ओ मंजिल के राही 

       चल दिया तू लक्ष्य की ओर

- शशि प्रेम 


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